Wednesday 22 August 2012

द्वंद्व

द्वंद्व




हमारी तुम्हारी इस बात में, कुछ अपनी कही कुछ तुम्हारी सुनी.

बातों के इस ढेर से चुनकर, फिर नयी एक कहानी बुनी,

इस कहानी के पत्रों में लेकिन, स्वयं को अकेला पता हूँ मैं,

क्यों चुप रहकर ही बेहतर, सुन पाता हूँ मैं.


कही जाने कितनी चीज़ें, तुमको बस शोर सुनाई पड़ा.

समझने का जो भी यत्न किया, वो औंधे मुँह आकर गिरा,

आँखें बंद करके भी सदा, क्यों अपने भाव ही गुनगुनता हूँ मैं,

क्यों नींद में रहकर ही, अपने सपने जी पता हूँ मैं.


दिन के उजाले मैं देखना, चाहता हूँ दुनिया के रंग सभी,

रंग चुरा लेता है कोई, रोशनी खो जाती है कभी,

ये इच्छा तुम्हे बताने से पहले, क्यों शब्दों को पलट जाता हूँ मैं,

क्यों पलकों के अंधेरे मैं बैठकर ही, ये रंग देख पाता हूँ मैं.


चाहते हो तुम जिस पथ पर चलना, कठोर लगने लगता है क्यों,

पैरों मैं छाले पड़ने हैं लगते, तुम्हारी और जो बढ़ने लगूँ,

विषम है इस पथ पर चलना, पर साथ तुम्हारा ही चाहता हूँ मैं,

तुम्हारे ध्येय को अपना साधकर ही, क्यों आगा बढ़ पाता हूँ मैं.


शायद जिस से बना हूँ मैं, वो मिट्टी खुद से ही बँधती है,

अपने तंतु से जुड़ती है, चाहे कितना भी छनती है,

जिस आकर मैं खुद को चाहूं, वो आकस्मात भूल जाता हूँ मैं,

क्यों द्वंद्व से बाहर आकर ही, खुद को स्मरण आता हूँ मैं.

-- राकेश



No comments: